सोमवार, 5 जुलाई 2010

सबसे खतरनाक है आपके सपनो का मर जाना .......

यह कविता मेरे सबसे प्रिये कवि 'पाश' की है. "पाश" यानि अवतार सिंह संधू .पञ्जाबी के विख्यात और क्रांतिकारी कवि. अवतार सिंह संधू "पाश " को उतना ही हिंदी भाषाई लोगों ने अपनाया जितना पञ्जाबी के पढने वालों ने. उनकी कविताओं में आक्रोश है. वो दमन और अत्याचार के खिलाफ और आम तथा दबे कुचले आदमी के साथ हमेशा खड़े रहे.
पाश का जन्म जालंधर में हुआ था. अपनी कविताओं में उन्होंने हमेशा मजदूर, किसान, महिलाओं और संघर्षरत लोगों को जगह दी है. 1970 में पाश का पहला कविता संग्रह "लोह कथा " प्रकाशित हुआ. अपनी लेखनी से हमेशा ही " सत्ता " की आँखों की किरकिरी बने रहे पाश जेल में भी रहे. एक जगह वो कहते हैं- " मुक्ति का जब कोई रास्ता न मिला मैं लिखने बैठ गया". उनका लेखन आम लोगों के लिए थे. अवतार सिंह पाश, एक कवि, एक विचारक, एक क्रन्तिकारी और एक शायर सब एकसाथ थे . पाश, जिनकी कविताओं को हर भाषा में पढ़ा गया. एक ऐसे कवि जो वामपंथी आंदोलन में सक्रिय रहे। वो भगत सिंह से बहुत ज्यादा प्रभावित थे . भगत सिंह और पाश , दोनों की शहादत की तारीख एक ही है, 23 मार्च, बस साल अलग- अलग हैं । पाश महज़ 38 साल की उम्र में 23 मार्च 1988 को खालिस्तानी आतंकवादियों की गोली से मौत कि नींद सुला दिए गए.

प्रस्तुत है "पाश" की एक महत्वपूर्ण कविता --- सबसे खतरनाक

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती.




काश पाश आज जिंदा होते तो हमें कितनी बेहतरीन रचनाये दे चुके होते .


भारत में मेडिकल शिक्षा का सवाल

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं कि स्थिति के बारे में जितना रोना रोया जाता है उतना उस शिक्षा के बारे में नहीं जो एक प्रशिक्षित डॉक्टर बनाती है. स्वास्थ्य शिक्षा एक महत्वपूर्ण विषय है और इसके व्यापक और गुणात्मक पहुँच के लिये गंभीर प्रयासों की ज़रूरत है. अगर हमें लोगों के लिये अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहिए तो हमें अपनी आबादी के हिसाब से प्रशिक्षित डॉक्टरों को तैयार करना होगा. वर्तमान परिदृश्य में चिकित्सा शिक्षा कि जो स्थिति है उससे हमें अपने ज़रूरत के हिसाब के डॉक्टर मिल जायेंगे इसकी उम्मीद मै नहीं करता.

हमारे यहाँ के अधिकांश शिक्षण संस्थान जिस तरह की शिक्षा मुहैया करवा रहे है उससे केवल डिग्रीधारी लोगों की भीड़ निकल रही है. अधिकांश ज़गहो पर पढाने के नाम पर केवल खानापूर्ति हो रही है. सरकार पर डॉक्टरों की बड़ी फौज खड़ी करने का इतना दबाव है कि उसने कुछ बहुत ही ज़रुरी बातों पर अपनी आँखें मूँद रखी है . आधारभूत संरचनाओं का भारी आकाल है . कही शिक्षक नहीं है ,कही प्रयोगशालाएं नहीं है, कही पढाने के लिये भवन नहीं है . प्रायवेट संस्थानों का तो और बुरा हाल है . उनका बस चले तो वे केवल डोनेशन ले कर ही डिग्री बाँट दें ,पढ़ने की सुविधा तो वे मजबूरी में देते है. खैर ये सब तो वो बातें है जो सबको दिख सकती हैं.

एक मेडिकल छात्र होने के नाते मै थोडा और गहराई से देखता हूँ .पिछले ११ साल से मैने इस व्यवस्था को बहुत नजदीक से देखा है. मै यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि समय के साथ इस शिक्षा की गुणवत्ता में व्यापक कमी आई है. पढाई का स्तर गिरा है और हम समय के साथ नहीं चल पायें है. कुछेक प्रतिष्ठित संस्थानों को छोड़ दे तो हम अपनी इस स्थिति पर निराश हुए बिना नहीं रह पाएंगे. अच्छे संस्थान तो इस देश में मात्र गिने चुने है और उनसे निकलने वाले अधिकांश छात्र या तो पैसों कि लालच में या और अच्छी शिक्षा के लिये विदेश चले जाते है या अच्छी जिंदगी कि चाह लिये बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों को अपना लेते है .दूसरे दर्जे के अधिकांश संस्थानों से जो डॉक्टर निकलते है वे भारत के छोटे बड़े शहरों में ही खप जाते है .हमारी बड़ी आबादी जो गांवों में रहती है उनके पास केवल अर्धप्रशिक्षित लोग ही पहुंचते है और वो भी मजबूरी में . ये लोग भी हमेशा वहा से बहार निकलने कि जुगत में रहते है जहाँ इस भ्रष्ट्राचारी तंत्र से उन्हें आसानी से भागने में मदद भी मिल जाती है .

अब हमें यह बिलकुल साफ दीखता है कि सरकार धीरे-धीरे अपने हाथ खींच रही है. लोगों कि स्वास्थ्य सुविधा और मेडिकल शिक्षा को बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया गया है आधारभूत सुविधाओं और कुशल शिक्षकों कि कमी के कारण अर्धप्रशिक्षित और लगभग अप्रशिक्षित लोग इन कारखानों (संस्थाओं) से निकल रहे है. उच्च शिक्षा में आरक्षण ने इस कोढ़ में खाज का काम किया है. मै व्यक्तिगत तौर पे ऐसे लोगों को जानता हू जो केवल आरक्षण की वज़ह से यहाँ पहुँचते है औए हर कदम पे आरक्षण कि सुविधा के कारण ही यहाँ से निकल भी जाते है. इनमे से अधिकांश लोगों के तथ्यात्मक और प्रायोगिक ज्ञान इतने निम्न दर्जे के होते है कि मै डर जाता हूँ. मुझे ये कल्पना ही भयावह लगती है कि ऐसे लोग बाहर जायेंगे और लोगों कि चिकित्सा (न जाने कैसे) करेंगे . पर मुझे पता है ये करेंगे और अगर किसी का नुकसान होगा तो वो कोई गरीब और मजबूर ही होगा क्योकि बड़े और पैसे वालों के लिये तो बड़े और प्रशिक्षित डॉक्टर हमेशा मौजूद रहेंगे. हमारी सरकार को इन बातों से कुछ लेना देना नहीं है क्योकि हम जिसे सरकार कहते है वो अपना इलाज़ केवल विदेशों में ही करवाते है (चाहे वे डॉक्टर यही के क्यों न हो).

इस पेशे में अब ऐसे लोगों कि भरमार हो गयी है जो चिकित्सा और मानव स्वास्थ्य को केवल कमाई का जरिया मानते है. चिकित्सा सेवा में ऐसे लोग ही अब प्रमुखता से है जो अपने संस्कारगत गुणों के कारण व्यापार को ही सर्वप्रमुख मानते है. मेडिकल कालेजो में वैसे ही लोग आ पाते है जिनके पास पैसा है और वे उसे अपनी डिग्री के लिये खर्च कर सकते हों . पैसे का स्रोत अधिकतर काला धन ही होता है जो हमारे निजी शिक्षण संस्थान आसानी से डोनेशन के रूप में पचा जाते है . ये व्यापारी जब अपना पैसा लगाते है तो डिग्री मिलने के बात उसे इसी समाज से वसूल भी करते है और अंततः नीचे का आम आदमी ही पीसता है और सबके लिये स्वास्थ्य एक सपना बनी रहती है.

यह सब स्वास्थ्य के प्रति सरकारी ढुलमुल और उपेक्षापूर्ण नीति के कारण ही संभव हुआ है. हमारे भाग्यविधाता देश को कितनी आतंरिक और बाहरी आतंको से डराकर हमारा रक्षा खर्च बढ़ाते है और मोटी दलाली के ज़रिये उसे अपने जेब में डाल लेते है. स्वास्थ्य क्षेत्र हमेशा की तरह उपेक्षित रहता है और इस पर हमेशा खर्च कम कर दिया जाता है बस इसीलिए कि यह कम कमाऊ है इसमें दलाली कम है . जनता को दिखने के लिये बिना आधारभूत संरचनाओं के बिना ही अप्रशिक्षित लोगों की फौज खडा कर ली जाती है और उन्हें गरीबों की ओर छोड़ दिया जाता है जिससे उनकी हालत और बदतर होती जाती है. इस (कहने को ) लोकतान्त्रिक समाज में जनता का स्वास्थ्य सरकार कि ज़िम्मेदारी है इसे सत्ता में बैठे अंधे लोगों को समझाना होगा वरना पहले से बीमार यह लोकतंत्र और कमज़ोर होगा.

रविवार, 4 जुलाई 2010

राष्ट्रमंडल खेलों का सच

आजकल दिल्ली में जिसका हल्ला मचा है ,काफी दिन पहले से मचा हुआ था और आगे भी मचा रहेगा वह है कॉमनवेल्थ यानि राष्ट्रमंडल खेलों का .इन खेलों के सामाजिक महत्व चाहे जो भी गिनाये जाये , हमारी महत्वपूर्ण राष्ट्रीय समस्याओं के सामने ये खेल एक मजाक लगते है .इस पूरे आयोज़न के पीछे जो गिरोह है वे इसे एक राष्ट्रीय स्वाभिमान का विषय बनाकर जनता के सामने पेश कर रहे है. वे बता रहे है कि इसी आयोज़न से देश की आन -बान और शान जुड़ी है , इसी से इंडिया इंडिया कहलाने लायक हो सकेगा (इंडिया के सामने भारत बिलकुल अलग चीज़ है )और यही आयोज़न हमारी पहचान बनेगा आदि आदि.
सच तो ये है की जनता की तो छोडिये , जनता से कटे इन मुट्ठी भर दलालों का गिरोह भी ये नहीं जानते होंगे कि पिछले राष्ट्रमंडल खेल कहाँ हुए थे . भारत में खेलों कि दुर्दशा के लिए जिम्मेदार इन मुट्ठी भर लालची लोगों को भारत कि आन -बान और शान से कोई लेना देना नहीं है वे इन खेलों के बहाने केवल अपनी जेबें भरना और गरीबों को दिल्ली से बेदखल करना चाहते है ताकि उनके आने वाले दिन ऐश भरे हो. अगर खेलों के बाद कोई बड़ा घोटाला सामने आये तो हमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए .
इस देश में खेलों के नाम पर बेतहाशा खर्चे होते है और उससे कोई भी समझदार और जिम्मेदार आदमी सकते में आ जायेगा . हमारे पूर्ववर्ती खेलमंत्री मणिशंकर अईयर के अनुसार पिछले मेलबौर्न खेलो में भारत को केवल ११ मिनट के प्रदर्शन के लिए १४ करोड रुपये खर्च करने पड़े . भारत की सांस्कृतिक पहचान बने हमारे फ़िल्मी सितारों ने अपनी देशभक्ति दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. हमारी राष्ट्रीय सम्मान बनी अभिनेत्री ऐश्वर्य राय ने समारोह में शामिल होने के लिए और भारत के राष्ट्रध्वज के साथ ४ मिनट चलने के लिए खेल मंत्रालय से ४ करोड रुपये लिये . खैर उनकी तो डिमांड थी पैसों कि पर हमारी सरकार खेलों के मामले में इतनी उदार है कि सैफ अली खान को बिना मांगे ही ७५ लाख रुपये दे दिए गए .सरकारी लाव -लश्कर और उनके पूरे परिवार पर मंत्रालय का खर्चा हुआ सो अलग .हमारे इतने बड़े देश में ये खर्चे तो आम बात बन जाते है जिसकी कोई चर्चा भी नहीं होती .

इस मामले में राष्ट्रमंडल खेल थोडा अलग है . इस पर होने वाला खर्च बहुत ज्यादा है , भारत में आजतक होने वाले किसी भी आयोज़न से कही अधिक .इसके बड़े और दीर्घकालिक सामाजिक परिणाम होने लाजिमी है. दुनिया में आजतक होने वाले खेल आयोज़न यही दिखाते है कि इन आयोज़नो से जनता का कभी कोई फायदा नहीं हुआ है. इस पर होने वाले खर्चों का क़र्ज़ जनता लंबे समय तक विभिन्न रूपों में चुकाती रही है . भारत में भी यही होने वाला है. ये लंबी चौड़ी सड़के और फ्लेट्स किसके लिये है जनता सब जानती है .७० हज़ार करोड का खर्च किसके पैसों से किसके मेहनत से और किसके लिये हो रहा है ये वक्त के साथ सबको पता चल जायेगा. ३५ हज़ार विस्थापित परिवारों को कोई देखने वाला नहीं है. कुछ हज़ार गरीब परिवार जो बड़ी दयनीय हालत में अपनी मजदूरी और मेहनत से इन आयोज़नो के लिये काम कर रहे है(इन्ही लोगो के कारण इस आयोज़न को जनता को रोज़गार देने वाला बताया जा रहा है)उन्हें सबसे पहले यहाँ से काम खत्म होते ही भगा दिया जायेगा ताकि उनकी छाया से ये आयोज़न कलुषित न हो जाएँ.
इस देश में जनता जहाँ अपनी कठिन जिंदगी को किसी तरह जी रही है , महंगाई और भ्रष्टाचार आतंकवाद के साथ मिलकर उसका जीना मुश्किल किये हुए है वही इन सबसे निश्चिन्त और आँखे मूंदीं सरकार इन आयोज़नो के माध्यम से केवल जनता का ध्यान देश कि असली समस्याओं से हटाना चाहती है जिसमे मिडिया सरकार के सहयोगी कि भूमिका निभा रही है.जनता की शिथिलता ,उसकी अज्ञानता और हम आप जैसे लोगों कि निष्क्रियता के कारण ऐसे आयोज़न आज तो सफल हो जायेंगे पर इसकी बहुत बड़ी कीमत आने वाला समय हमसे और हमारी आने वाली पीढ़ियों से वसूल करेगा.

ये कौन लोग है और ये क्या हो रहा है ?



लालगढ़ में आजकल जो भी हो रहा है वह एक सभ्य समाज पर कलंक है. हमें इसके खिलाफ दृढ़ता से खड़े होना पड़ेगा वरना हमारी आने वाली पीढियां कभी भी शांति से नहीं रह पाएंगी .इस देश के आगे कई ऐसे उदहारण पड़े है जहा आजतक सेना लड़ रही है पर समस्या जस की तस है. अगर सरकार ज़नता की समस्या सुनाने के बजाए अपने ही लोगो के खिलाफ युद्ध छेड़ देगी तो समस्या नहीं सुलझनेवाली. आखिर सेना कितने (निर्दोष ) लोगो को मारेगी .हमारी ये सरकार जनता की कब सुनेगी ? क्या ये गूंगा तंत्र चल पायेगा ?


रणेंद्र की एक कविता

अभी तो
रणेन्द्र

शब्द सहेजने की कला
अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्य
पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह
अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना
शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर
इस जीवन में तो कठिन

जीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बार

जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछुए
श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते
अभी तो,
उनकी ही जगह
इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ

अभी तो,
हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार
की मादकता से मताए मीडिया के
आठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त
हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता

अभी तो,
राजपथ की
एक-एक ईंच सौन्दर्य सहेजने
और बरतने की अद्‌भुत दमक से
चौंधियायी हुई हैं हमारी आँखें

अभी तो,
राजधानी के लाल सुर्ख होंठों के लरजने भर से
असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं

अभी तो,
जंगलों, पहाड़ों और खेतों को
एक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है

अभी तो,
राजपरिवारों और सुखयात क्षत्रिय कुलकों के नहीं
वही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों को
अलग-अलग रंग की वर्दियाँ पहना कर
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है
लहू जो बह रहा है
उससे बस चन्द जोड़े होंठ टहटह हो रहे हैं

अभी तो,
बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती
लम्बी सरल विरल काली रेखा है
जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड
और महाश्वेता की हजारों-हजार द्रौपदी संताल हैं


अभी तो,
जीवन सहेजने का हाहाकार है
बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर
फटे आँचल की छाँह है
जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में
फँस कर छूट गया है

अभी तो,
तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने से
तुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार है
परसों दोपहर को निगले गए
मड़ुए की रोटी की रिक्तता है
फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े
बूढ़ों की फटी बिवाइयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं
निढ़ाल होती देह है
किन्तु पिछुआती बारूदी गंध
गोदावरी पार ठेले जा रही है

अभी तो,
कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँ
वह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती
लथपथ तलवों के लिए मलहम
सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल
और संजीवनी बूटी

अभी तो,
चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल की
घायल छातियों में लहूका सोता बन कर उतरे
और दूध की धार भी
ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें

लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलट
सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं
सुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा
अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही

अभी तो,
हमारी मासूम कोशिश है
कुचैले शब्दों की ढ़ाल ले
इतिहास के आभिजात्य पन्नों में
बेधड़क दाखिल हो जाएँ
द्रौपदी संताल, सीके जानू, सत्यभामा शउरा
इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और ... और ...

गोरे पन्ने थोड़े सँवला जाएँ

अभी तो,
शब्दों को
रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख
उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ